नोट बंदी से घिरा किसान

बिना हिसाब किताब के कालेधन पर रोक लगाने के लिए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने 8  नवम्बर 2016 को 500 और 1000 रुपए के नोटों को चलन के बाहर कर दिया। देश में प्रचिलित नोटों का लगभग 86 प्रतिशत हिस्सा इस बड़ी राशि के नोटों का था। इस नोटबंदी का सर्वाधिक असर किसान भाईयों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर ही हुआ है। भारत शासन के कर्णधार इस को नकारते हुए यह कहते दिखाई पड़ रहे हैं कि पिछले साल की तुलना में इस समय तक रबी फसल की बुआई अधिक क्षेत्र में हुई है इस कारण कृषि क्षेत्र नोटबंदी से अप्रभावित है। वस्तुत: इस वर्ष मानसून की वर्षा अपने अंतिम चरण में उत्तर भारत में व्यापक रूप से हुई थी, इस कारण खेतों में पर्याप्त नमी होने से एवं पलेवा शीघ्र होने से सामान्यत: बुआई तेजी से हुई लेकिन नोटबंदी के कारण किसान भाई न तो नया बीज खरीद पाये और न ही फसलों में उर्वरकों की वांछित मात्रा का उपयोग कर पाये। जैसे-तैसे कम उर्वरकों और अपने पास के अनाज को बोकर काम चलाया। इसका असर पैदावार पर निश्चत ही कटाई के समय विपरीत रूप से दिखेगा। नोटबंदी के कारण किसानों द्वारा उत्तपादित सब्जियों के मंडी में खरीद दार कम मिले, सब्जियाँ सस्ते दामों में मजबूरी में बेचना पड़ी अन्यथा उसके ख्राब होने से और अधिक नुकसान उठाना पड़ता।नोटबंदी के कारण अनाज मंडी में कामकाज ठप्प हो गया। व्यापारियों के पास नकद राशि नहीं होने के कारण वे अनाज खरीद के प्रति उदासीन हो गये व किसानों की पैदावार के दाम थोक मंडीयों में गिर गये।
जैसे-तैसे चेक से भुगतान प्रक्रिया प्रारंभ कर अनाज मंडी में काम-काज प्रारंभ हुआ लेकिन चेक से भुगतान की राशि को किसानों के खाते में पहुँचाने में देरी लग रही है। एक बार में केबल चौबीस हजार की राशि निकाल सकने की बाध्यता के कारण पूरी ग्रामीण अर्थव्यवस्था ही गड़बड़ा गई है। किसानों का, कृषि आय का कालेधन से कुछ लेना देना नहीं है, इसके बावजूद नोटबंदी उसके लिए आर्थिक आपत् काल नहीं आफत काल बन गई है। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत सहकारी बैंकों में उनका कार्य व्यवहार थम गया है वहीं बैंक अफसरों-नेताओं की सांठ-गाँठ से बड़ी मात्रा में जन-धन खातों में जमा धन गरीबों की ईमानदारी को भी संदिग्ध बना रहा है। देश का गरीब, श्रमिक व किसान वर्ग नोटबंदी के प्रस्ताव का भोला समर्थक बना हुआ है, वो यह भ्रम पाल बैठा है कि हमारे तो लंगोटी लगी हुई है अब प्रधानमंत्री कालेधन वाले अमीरों को भी उनका काला धन छीन कर लंगोटी पहना देंगे, वह इसी आशा में खुश है जब कि सच्चाई यह है कि नोट बदली के खेल को उसकी अंतिम पड़ाव तक पहुंचाते-पहुंचाते हमारे शासक और नियामक भी निराशा के गर्त में पहुंच जायेंगे। शासन का मोटा अनुमान १६ लाख करोड़ रुपए का धन मुद्रा के रूप में चलन में है इसका लगभग एक तिहाई कालाधन होगा व वह चलन के बाहर हो जाएगा जबकि आँकड़े बताते हैं कि 16 लाख करोड़ में से लगभग १२ लाख करोड़ रुपए बैंकों में 2 दिसम्बर 2016 तक आ चुका है व इसमें 8 नवंबर से 1 दिसंबर तक 24 दिन लगे इस प्रक्रिया में अभी भी 30 दिसंबर होने तक 29 दिन बाकी हैं जिसमें लगभग सभी बड़े नोट बादल जायेंगे। इस पूरी प्रक्रिया का व्यावहारिक रूप है 'जुगाड़ तंत्र सरकार चाहे जो कानून बनाले लेकिन भारतवासी 'जुगाड़ तंत्र  के माध्यम से उससे बचने के उपाय खोज ही लेते हैं तभी जनधन खातों में करोड़ों की काली कमाई अचानक जमा हो गई। वस्तुत: देश में काली कमाई के शीर्ष पर राजनैतिक दल, उनसे जुड़े नेता, जनप्रतिनिधि व शासकीय अधिकारीगण हैं।  नेताओं और अधिकारियों में साँठ-गाँठ ही काले धन की जनक है। प्रधानमंत्री ने अपनी ही राजनैतिक पार्टी के सांसदों ने अपनी ही राजनैतिक पार्टी के सांसदों व विधायकों को 8 नवंबर से 30 दिसंबर तक का अपने लेन-देन के खातों का ब्यौरा पार्टी अध्यक्ष को देने को कहा है, इससे क्या होगा? देश की जनता यह जानती है कि सत्ताधारी दल हों या विपक्षी, अपने वेतन भत्ते बढ़वाने में तुरंत एकमत हो जाते हैं व बिना हिसाब के संसद, विधानसभाओं में इस संबंध में त्वरित बदलाव पर सामूहिक निर्णय निर्विवादित रूप से ले लिया जाता है। भ्रष्टाचार और भ्रष्टतंत्र पर यदि लगाम लगानी है तो सर्वप्रथम संसद और विधान सभाओं में विधायी कार्य में बाधा डालने वाले जन प्रतिनिधयों के वेतन-भत्तों में कटौती करना चाहिए, बिना काम के जब साधारण श्रमिक को वेतन नहीं मिलता तो हुल्लड़बाज नेताओं को क्यों भुगतान मिले। सांसदों और विधायकों को उनके कार्यकाल समाप्त होने के बाद पेंशन व अन्य सुविधायें मिलने का कोई औचित्य नहीं है। भारतीय गणतंत्र में अपनी रियासतें शामिल करने वाले राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रिवीपर्स को जब एक झटके में तत्समय की प्रधानमंत्री ने बंद कर दिया तो कार्यकाल के बाद जनप्रतिनिधियों को क्यों शासकीय खजाने से सुविधायें मिलें? यह तो एक बानगी मात्र है, ऐसे कई उपाय हैं जैसे राजनैतिक दलों को सूचना के अधिकार और आयकर कानून के दायरे में लाना आदि। इससे निश्चय ही शीर्ष पर फैला भ्रष्टाचार मिटेगा लोक नीति भी है 'यथा राजा - तथा प्रजा यदि शीर्ष नेतृत्व ईमानदार होगा, भ्रष्ट अफसरशाही पर अंकुश लगाने के अपने दायित्वों को भली-भांति निभायेगा तो भ्रष्टाचार क्योंकर होगा? हमारे प्रधानमंत्री उर्जावान, क्षमतावान, दूरदृष्टि के धनी नेतृत्वकर्ता हैं परंतु भ्रष्ट राजनैतिक तंत्र के प्रभावी रहते केवल उनसे अपेक्षा करना व्यर्थ है। हमें प्रजातंत्र मे जागरूक रह कर बेदाग छवि वाले नेताओं को चुनना होगा तभी व्यवस्था में बदलाव संभव है। तभी हम भ्रष्टाचार मुक्त भारत की कल्पना सार्थक कर सकते हैं। नोटबंदी के बाद आर्थिक सुधारों की दिशा में प्रधानमंत्री ने देश में केशलैस इकानामी की वकालत की और बाद में इसमें संशोधन कर लैस कैश इकानमी की बात कर रहे हैं। भारत जैसे देश में जहां आजादी के 70 साल बाद भी आंंशिक, दूर-दराज के क्षेत्रों में बैंकिग सुविधाओं की कमी, इंटरनेट का ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिग सुविधाओं की कमी, इंटरनेट का ग्रामीण क्षेत्रों में सीमित प्रचलन और पंरपरागत बचत के तरीके प्रभाावी हैं तब तक लैस केश इकानामी की भी व्यवहार्यता सीमित है। ग्रामीण क्षेत्रों की पैसंठ प्रतिशत आबादी अभी भी ई वालेट के व्यवहार से अपरिचित है और आये दिन अखबारों में ई-मुद्रा के संव्यवहार होने वाली धोखाघड़ी के प्रति आशंकित है, ऐसी दशा में लैस कैश इकानामी (रुपये का लेन-देन मे कम से कम प्रयोग) फिलहाल दूर की कौड़ी है। वर्तमान में भी शासन की निर्भरता इंटरनेट आधारित कार्यप्रणली पर बढ़ रही है, परंतु कार्य व्यवहार में


आने वाली कठिनाईयों के कारण आलोचना और विवादों के दायरे में है। म.प्र. में अभी भी इसके माध्यम से गरीबों को समय पर राशन नहीं मिल रहा, राजस्व रिकार्ड में संसोधन, संधारण में कठिनाईयाँ व्याप्त हैं, शासन के संकल्प के बावजूद खेतों की नपाई का कार्य ठीक से नहीं हो रहा, शासकीय कर्मचारी-अधिकारी पर्याप्त प्रशिक्षण सुविधा के बावजूद इसकी प्रायोगिक जटिलताओं की आत्मसात नहीं करपा रहे तब पर्याप्त शिक्षण- प्रशिक्षण के अभाव में आम जनता से इसको अपनाने की अपेक्षा रखना जटिल कार्य है।