खेत में जो भी फसलें उगाई जाती हैं वे निरंतर मृदा से पोषक तत्वों को अच्छी पैदावार देने के लिए ग्रहण करती हैं इस कारण से भूमि की उर्वराशक्ति कम हो जाती है। खाद डालने से भूमि में पौधों के लिए आवश्यक पोषक तत्वों की कमी दूर हो जाती है।
खाद दो प्रकार की होती है पहली जैविक और दूसरी रासायनिक। जैविक खाद डालने से भूमि की संरचना सुधरती है। उसमें जलधारण की क्षमता बढ़ जाती है साथ ही वायु संचार भी सुधरता है। फसल उत्पादन के लिए आवश्यक कार्बन-नाइट्रोजन अनुपात भी सुधरता है। केवल रासायनिक खाद (उर्वरक) के उपयोग से धीरे-धीरे मृदा की उर्वरा शक्ति घटने लगती है व उसकी संरचना में परिवर्तन आने से मृदा कड़ी होने लगती है जिससे पौधों को पनपने में मुश्किल होती है व इसके परिणामस्वरूप पैदावार कम होने लगती है। अच्छे फसल उत्पादन के लिए घाघ महाशय जैविक खाद की महत्ता को जानते थे वे कहते हैं-
खेती करै खाद से भरै
सौ मन अन्न कोठिला धरै।।
यदि खेती करना है तो खेत को खाद से भर दो, ऐसा करने से भरपूर पैदावार होगी और अन्न भंडार में भरपूर वृद्धि होगी-
खाद पड़े तो खेत,
नहिं तो कुड़ा रेत।।
खेत में यदि खाद डालोगे तो ही अच्छी पैदावार होगी अन्यथा मृदा में फसल पैदावार इतनी कमजोर होगी जैसे रेत में उगाई गई हो।
खेते पाँसा जो न किसान।
उसको करे दरिद्र समान।।
जो किसान अपने खेत में खाद नहीं डालता उसका घर कम पैदावार आने के कारण दरिद्र के समान हो जाता है।
गोबर मैला नीम की खली।
इससे खेती दूनी फली।।
गोबार, विष्ठा, नीम की खली डालने से खेत में दूनी पैदावार होती है।
प्राचीन कृषि साहित्य में मछली और खून की खाद, सड़े हुए माँस की खाद, जलकुंभी की खाद, चिडिय़ों की बीट की खाद, तालाब और नदी की मिट्टी की खाद, शीरे की खाद, मैले की खाद, दलहनी फसलें जैसे मूंग, उड़द, ढेंचा की खाद, सनई की खाद, हड्डी की खाद आदि का विवरण मिलता है। खेत में भेड़-बकरी ऊँट आदि रात भर बैठाने से भी बढिय़ा जैविक खाद मिलती है। खेत में जो भी गोबर, मैला आदि की खाद डाली जाती है उसे भली भाँति सड़ाया जाता है तथा पूरी तरह सडऩे/पकने पर ही इन्हें खेत में डालना चाहिए ऐसा न होने पर खेतों में दीमक आदि कीटों का प्रकोप हो सकता है। खेत में जैविक खाद खेत के नम अवस्था में होने पर ही डालना चाहिए तथा खाद के पोषक तत्वों को संरक्षित रखने के लिए उसे तुरंत मृदा में मिला देना चाहिए तभी खाद का लाभदायक परिणाम मिलता है। गोबर-गोमूत्र, खरपतवार के मेल से नाडेप पद्धति से कम समय में उत्तम गुणवत्ता की खाद बनाई जा सकती है, इसके साथ ही वर्तमान में केंचुआ खाद बनाने की पद्धति भी विकसित की गई है जो कि एक अच्छी जैविक खाद है। हरित क्रांति के माध्यम से हमने अच्छा कृषि उत्पादन लिया है पर इस पद्धति में जैविक खादों के समावेश पर जोर नहीं दिये जाने से इसका जादू धीरे-धीरे उतार पर है, खेत में और अधिक मात्रा में महँगी रासायनिक खाद डालने के बावजूद उत्पादन घट रहा है, भूमि की जलधारण क्षमता, उर्वरापन घट रहा है जिससे पैदावार घट रही है, भूमि संरचना सघन हो रही है इस कारण पौधों का समुचित विकास नहीं हो रहा है, मृदा में खारेपन की समस्या बढ़ रही है। इन सबका समाधान जैविक खाद डालने से संभव है। जैविक खाद के प्रयोग से पौधों में सूखा सहने की शक्ति भी बढ़ जाती है। हमारे वैज्ञानिकों का ध्यान अब जैविक खेती की ओर आकृष्ट होने लगा है वे रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध उपयोग के दुष्परिणामों को जान चुके हैं वहीं भारतीय किसान अपनी सनातन कृषि पद्धति से जैविक खादों के सुपरिणामों से भली भाँति परिचित हैं और घाघ महाशय की ये लोकोक्तियाँ इसका प्रमाण है।
खाद देय तो होवै खेती।
नाहं तो रहे नदी की रेती।।
खाद देने से खेती होती है अन्यथा खेत नदी की रेत के समान है।
खाद का कूरा ना टरे चाहे करम लिखा टरि जाय।।
भाग्य का लिखा टल सकता है पर कूड़े की खाद निष्फल नहीं जाती, अच्छी पैदावार अवश्य होती है।
सनई बोवै सनई काढ़ै,
सनई सारे खेत मझार।
उलटे पलटे दोनों जोतै
वहि दीजै गल्ला का झार।।
सन के डंठल खेत छोड़ावै।
तिन ते लाभ चौगुने पावै।।
सनई बोवो, सनई काटो और
सनई को खेत में सड़ा डालो।
खेत को उलट पलट कर जोतो तो चौगुना अनाज पेदा होगा। खेत में सनई के डंठल जोत देने से पैदावार में बड़ा लाभ होता है।
जेकर खेत पड़ा नहिं गोबर।
वहि किसान को जानो दूबर।।
जिस किसान के खेत में गोबर नहीं पड़ता उसे दीन-हीन मानो (इसका कारण खाद के अभाव में कम पैदावार होने से है)
गोबर राखी पाती सड़े।
तब खेती में दाना पड़े।।
खेत में गोबर, राख, पत्ती सडऩे से पैदावार अधिक होती है।
जो तुम देव नील की जूठी।
सब खादों में रहे अनूठी।।
अगर नील के पत्ती डंठल खेत में जोत दिये जायें तो सब खादों से अच्छा नतीजा मिलता है।
वही किसान है पूरा।
जो डारै हड्डी का चूरा।।
जो हड्डी के चूरे की खाद अपने खेत में डालता है वही दक्ष किसान है।
गोबर चोकर चकवड़ रूसा।
इनको छोड़े होय न भूसा।।
गोबर, चोकर, चकवड़ तथा अडूसा को खेत में डालने से भूसा कम और दाना अधिक होता है।
जेहि क्यारिन में मूते ढोर
सब खेतन में वह सिरमौर।।
- अर्थ सरल है।
खेत में खाद डालने के समय के बारे में भी घाघ का कहना है-
खाद असाढ़ खेत मा डाले।
तब फिर खूबहिं दाना पालै।।
अषाढ़ में खाद खेत में जाये
तब भर मूठी दाना पाये।
आज भी हमारे किसान इसी पुरातन परंपरा पर चल रहे हैं। खेत में जैविक खाद से न केवल पैदावार बढ़ती है, दाने पुष्ट होते हैं वहीं मृदा की भौतिक एवं रासायनिक संरचना में भी सुधार होता है। आधुनिक कृषि विज्ञान भी मृदा में ह्यूमस (कार्बन) की उपयोगिता को कृषि उत्पादन की वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण मानता है।