प्राचीन भारत में भूगर्भ जल को ज्ञात करने की विधि-दृकार्गल

भूगर्भ जल का पता लगाने के लिए प्राचीन संस्कृत साहित्य में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। भूमि सतह पर उगे हुए वृक्ष, मृदा का रंग, भूगर्भ में पाये जाने वाले पत्थरों के रंग आदि के आधार पर भूगर्भ जल का पता लगाने का विवरण इन संहिताओं में उपलब्ध है। कुआं निर्माण किस समय करना शुभ होता है, अशुद्ध पानी को शुद्ध करने की विधि आदि जानकारी इस लेखमाला में
    
                    प्राणी मात्र के जीवन यापन और अन्न उत्पादन के लिए जल की आवश्यकता सदैव ही रही है। पानी की आवश्यकता पूर्ति के लिए कुएँ-नलकूप खुदवाये जाते हैं लेकिन किस स्थान पर इन्हें खोदा जाए ताकि पानी की आपूर्ति हो सके, इसके लिए प्राचीनकाल से ही 'दृकार्गल' का उल्लेख हमारे प्राचीन संस्कृत साहित्य में मिलता है जिसमें वराह मिहिर कृत वराह संहिता प्रमुख है।
दृकार्गल दो शब्दों से मिलकर बना है दृक+अर्गल जिसका अभिप्राय इस प्रकार है- दृक (भूमि के अंदर का जल/दक/उदक) का अर्गला (लकड़ी की छड़ी) के माध्यम से पता लगाना।
आचार्य वराह मिहिर के ग्रंथ में सारस्वत और मनु का भी इस विधा के संदर्भ में उल्लेख किया है लेकिन इन विद्वानों के ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं।
लकड़ी की छड़ी द्वारा देश-विदेश में जानकार लोग भूगर्भ जल की खोज करते हैं। कई लोग लकड़ी के स्थान पर लोहे की मुड़ी हुई छड़ प्रयोग में लाते हैं तो कुछ नारियल हाथ में रख कर उसके माध्यम से पानी का भूमि में पता लगाते हैं। आधुनिक वैज्ञानिक भले ही इस विधा को अंधविश्वास कहें, इसकी विश्वसनीयता पर प्रश्र चिन्ह खड़े करें लेकिन अमेरिका जैसे विकसित देश में भी इस विधा से पानी खोजने वाले जानकार हैं तथा उनका अपना संगठन भी है। इंटरनेट पर इस संबंध में जानकारी उपलब्ध है। वस्तुत: इस विधि से पानी खोजने का कार्य करने वाले व्यक्तियों को प्रकृति/ईश्वर ने कोई विशेष आंतरिक शक्ति प्रदान की है जिसके द्वारा वे इस कार्य में सकल होते देखे गये हैं। हमारे देश में ऐसा विश्वास किया जाता है कि 'पग-पायला' (पैर से जन्म लेने वाले) व्यक्ति इस कार्य में अधिक सफल हैं।
इस की कार्यविधि इस प्रकार है- सर्वप्रथम पानी खोजने वाला व्यक्ति प्रात:काल स्नान कर शुद्ध वस्त्र पहनकर, अपने इष्ट देवता का स्मरण कर, उनकी पूजा-प्रार्थना कर शुभ मुहूर्त में पानी खोजने का कार्य अनुशंसित वृक्षों की अंगुली जितनी मोटाई की द्विशाखी (4 आकार की) ताजी लकड़ी की सहायता से करता है। वह अपने दोनों हाथों से लकड़ी की दोनों शाखाओं को पकड़कर भूमि पर चलता है व इसका तीसरा सिरा जमीन के समानांतर होता है, भूमि में पानी की शिरा मिलने पर व्यक्ति के हाथों में लकड़ी स्वत: घूमने लगती है व वह पानी की शिरा की ओर झुकने लगती है। जो व्यक्ति इस लकड़ी को हाथ में लेकर घूमता है वह जल के तेज प्रवाह को अपने शरीर में अनुभव करता है, उसे विद्युत करंट के समान ही अपने शरीर में अनुभव होता है जिस स्थान पर ऐसा अनुभव होता है वहाँ कुआँ/नलकूप खोदने पर पानी निश्चय ही मिलता है। इस कार्य में संलग्र व्यक्ति अपने अनुभव के आधार पर उपलब्ध पानी की मात्रा और पानी मिलने की गहराई के बारे में भी बताने में सफल रहते हैं।
पानी का पता लगाने के लिए प्राय: निम्र वृक्षों की लकड़ी काम में लेते हैं-
४ सप्तपर्ण (Alstonia Scholaris R.Br.) प्रचलित नाम छितवन, सतोना, सतवन, शैतानी, झांड
४  जामुन: ((Eugenia Jambolana Lam) संस्कत: जम्बू
४  मेंहदी : संस्कृत-मदयन्तिका
४ गूलर : संस्कृत उदुम्बर (Ficus Glomerafa Roxb)
४  खजूर (Phonix dactylifera Phoenis sylvestris (L) Roxb.)
खजूर की वस्तुत: दो जिव्ही शाखा मिलना संभव नहीं है इसलिए दो शाखाओं को अंग्रेजी के ङ्घ अक्षर के रूप में बाँध कर काम में लेते हैं।


कुछ लोग इस कार्य के लिए आक या अमरूद की लकड़ी भी काम में लेते हैं। हमारे देश में पानी खोजने वाले ऐसे जानकार लोगों को 'पानी बाबाÓ के नाम से भी संबोधित करते हैं। कौन से पानी बाबा जानकार हैं और कौन केवल पैसों के लालच में ठगी कर रहे हैं, किस पानी बाबा का भूगर्भ जल की खोज के संदर्भ में अनुमान सही है, इसकी भी परीक्षा आवश्यक है। इस परीक्षा में उनके अनुभव की जाँच के लिए उन्हें पहले से जल से भरे हुए कुएँ के चारों तरऊ उनके हाथ में पानी खोजने वाली लकड़ी लेकर घुमाना चाहिए यदि कुएँ में आ रही पानी की शिराओं के बारे में वे अपने परीक्षण से ठीक-ठीक दिशा बतला सकें, कुएँ में आने वाली पानी की शिराओं (झिरों) के ऊपर उनकी लकड़ी घूमे तो ही उन्हें जानकार समझकर परामर्श लेना चाहिए अन्यथा मक्कार लोगों के फेर में पड़कर आप के द्वारा खुदवाये गये नि:संदेह असफल होंगे तथा धनहानि भी अलग से होगी।

भूगर्भ जल की खोज के संदर्भ में वराह मिहिर ने अपने ग्रंथ वराह संहिता में विस्तृत संकेत दिये हैं, भूमि सतह पर प्राकृतिक रूप से ऊगे वृक्षों, मृदा के रंग, विनन के समय निकलने वाले पत्थरों, मिट्टी के रं, मृदा सतह पर सर्प की बांवी आदि संरचनायें, जीव जंतुओं की भूमि के अंदर उपस्थिति खनन को उपयुक्त समय आदि विभिन्न आधारों पर पानी की उपलब्धता के बारे में विवरण दिया है, इन पर वैज्ञानिक शोध भी हुई है व पानी की उपलब्धता के संदर्भ में ये विवरण प्रमाणिक भी पाये गये हैं, इन सबके बारे में आगामी अंकों में अपने सुधी पाठकों को विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई जायेगी।


श्रीकांत काबरा, मो. 9406523699